अविजित मच्छर से साक्षात्कार

15-10-2023

अविजित मच्छर से साक्षात्कार

डॉ. अशोक गौतम (अंक: 239, अक्टूबर द्वितीय, 2023 में प्रकाशित)

 

मैं अपने कमरे की खिड़की अमूमन बंद ही रखता हूँ। इसलिए नहीं कि मुझे शुद्ध हवा से चिढ़ है। मुझे शुद्ध हवा से महँगाई जितनी घुटन होती है। मुझे शुद्ध हवा से बेरोज़गारी जितनी घुटन होती है। मुझे शुद्ध हवा से नेताओं के आश्वासनों जितनी घुटन होती है। या फिर जितनी घुटन ईमानदारों से होती है। या फिर जितनी घुटन सच बोलने वालों से होती है। 

मैं अपने कमरे की खिड़की इसीलिए आठ पहर चौबीसों घंटे बंद रखता हूँ कि खिड़की के रास्ते मेरे घर में शुद्ध हवा का रूप धर महँगाई न घुसे। मैं अपने कमरे की खिड़की इसलिए बंद रखता हूँ कि खिड़की के रास्ते मेरे घर में शुद्ध हवा का रूप धर बेरोज़गारी ने घुसे। मैं शुद्ध हवा के बिना मज़े से जी सकता हूँ, पर इनके होते हुए मत पूछो मेरा क्या हाल हो जाता है। इनका नाम सुनते ही मेरा रोम-रोम दहकने लगता है। मुझे एकाएक सब ठीक होने के बाद भी पता नहीं क्यों चक्कर आने लगते हैं? 

आज रात गर्मी से पसीना पसीना होने के बाद भी खिड़की बंद कर हवा को ठेंगा दिखाता सोने का मंचन कर रहा था कि मुझे बंद खिड़की से भी भीतर झाँकता कोई दिखा। या कि मुझे लगा बंद खिड़की से भी कोई भीतर झाँकने की सुचेष्टा कर रहा है। अजीब प्राणी हो गए हैं आजकल मेरे आसपास के। बंद खिड़की होने पर भी भीतर झाँकने की कोशिश करना नहीं छोड़ते। अहा रे निष्काम भोगियो! अरे, भीतर झाँको उनके जिनकी खिड़कियाँ खुली हों। अपनी तो यहाँ कमरे से लेकर दिमाग़ तक की सब खिड़कियाँ पता नहीं कबसे बंद हैं। 

लाइट जला डरते हुए बंद खिड़की से बाहर झाँका तो बाहर मच्छर। हद है यार! ये मच्छर भी न! महँगाई, बेरोज़गारी तो तंग किए ही है, अब ये मच्छर भी मेरे विरुद्ध मोर्चा खोले है . . . अच्छे दिनों में बहुधा ऐसा ही होता है। आप ही कहो, एक अकेला निहत्था अब किस किसके ख़िलाफ़ लड़े? मैं फटाफट ख़ाली माचिस से गुड नाइट जलाने लगा तो मच्छर ने गंभीर होते कहा, “बधाई दो दोस्त मुझे!” 

“किस ख़ुशी में? क्या मेरे पड़ोसी का ख़ून चूस कर आ रहे हो?” 

“आज मुझ पर अख़बार ने संपादकीय लिखा है, पूरे पाँच क़लम का! वाह! अब मच्छरों पर भी संपदकीय लिखने के दिन आ गए। लिखा है दोस्त! व्यवस्था सबको जीत सकती है, पर मच्छर को नहीं। इसलिए मच्छर बोले तो मैं अविजित हूँ। मैं अविनाशी हूँ। मैं मथुरा हूँ, मैं काशी हूँ। हर घर मेरा वास है। मेरे लिए उँच–नीच बकवास है। मैं आरक्षण में विश्वास नहीं करता। सबको समान रूप से सलाम करता हूँ। मेरे लिए लिए हर जात का मात्र एक ख़ून चुसाने वाला है। मैं बहुत ख़ुश हुआ जब मुझे पता चला कि मेरे ख़िलाफ़ सारे काम छोड़ वैज्ञानिक आरपार की जंग छेड़े हैं, पर सच कहता हूँ दोस्त! उन्हें मुझे हराने में कामयाबी मिलने वाली नहीं। यह मेरा अहंकार नहीं, तुमसे मेरा प्रेम प्यार बोल रहा है। असल में हमने भी तुम्हारे साथ रहते अपने को बदलती परिस्थितियों के हिसाब से ढाल लिया है। तुम्हारी तरह मैंने हमने कीटनाशकों से दोस्ती कर ली है। जिस तरह तुम हर क़ानून की काट ढूँढ़ लेते हो, उसी तरह हमने भी हर टाइप की मच्छरदानी की काट ढूँढ़ ली है। अब हमें मच्छरदानी के बाहर से काटने का हुनर आ गया है। जब मच्छरदानी के बाहर से ही काम हो जाए तो मच्छरदानी में घुसने का नाहक़ परिश्रम क्यों? 

“दोस्त! तुमने सीखा हो या न, पर अब हमने भी नई स्थिति के क़दम के साथ क़दम मिलाकर चलना सीख लिया है। हम जानते हैं कि जो बदलती स्थितियों के साथ न बदले, वह ख़त्म हो जाता है। पहले हम रात को ही काटते थे। पर तुमने जबसे हमारे ख़िलाफ़ रात को क़िस्म-क़िस्म की मोर्चाबंदी करनी शुरू की तो हमने दिन को काटना शुरू कर दिया। शोषक को शोषण करने से कोई नहीं रोक सकता। उसके लिए हर पल मौक़े ही मौक़े होते हैं। बस, उसे अवसर का उपभोग करना आना चाहिए। हमारे ऊपर तुम भ्रष्टाचारियों की तरह कितनी ही नकेल कसने की कोशिश कर लो दोस्त! पर हम तुमसे पराजित होने वाले नहीं। पता चला है कि आजकल तुम्हारे वैज्ञानिक रात-रात भर लोगों की खिड़कियों के बाहर डेरा डाले रहते हैं अपने नख से लेकर शिख तक ओडोमॉस लगाए, यह देखने के लिए कि हम कैसे सोए हुए तो सोए हुए, जागे हुए लोगों पर भी उन्हें सूचित कर उन पर हमला करते हैं। 

“दोस्त! पीठ पीछे से हत्थे निहत्थे किसी पर भी हमला करना हमारी नीति रणनीति नहीं। क्योंकि हम मच्छर हैं, आदमी नहीं,” उसके ओज भरे भाषण को सुन मैं और भी परेशान हो गया। जिस आदमी पर लोकतंत्र में मच्छर तक हॉबी हो, लानत है उस ऐसे आदमी को लोकतांत्रिक आदमी होने पर। 

चारों ओर से जात-जात के मच्छरों से घिरा होने पर तब मैंने बंद खिड़की से ही उसके सामने भी समर्पण करते कहा, “दोस्त! ख़ून चूसने वालों के आगे जनता की चली ही कब है? जिसे जनता का ख़ून चूसने की एकबार लत लग जाए, उस पर किसी भी तरह के लतनाशकों का कोई असर नहीं होता। मौक़ा मिलते ही वह क़ानून को भी चूस लेता है,” मैंने उससे बात करते डेंगू, चिकनगुनिए, मलेरिए के बारे में सोचा तो रोंगटे न होने के बाद भी मेरे रोंगटे खड़े हो गए। 

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