मच्छर एकता ज़िंदाबाद! 

01-05-2024

मच्छर एकता ज़िंदाबाद! 

डॉ. अशोक गौतम (अंक: 252, मई प्रथम, 2024 में प्रकाशित)

 

यों ही मच्छरों के राष्ट्रीय अध्यक्ष को फ़ार्म हाउस में घूमते-घूमते लगा कि यार! बड़े दिन हो गए! अपनी बिरादरी का कहीं कोई सम्मेलन-वम्मेलन नहीं हुआ। जात बिरादरी के सम्मेलन, समारोह बीच-बीच होते रहें तो उससे अपनी जात बिरादरी के बल का पता लगता रहता है। समाज में एका उतना ज़रूरी नहीं होता जितना जात बिरादरी में ज़रूरी होता है। इससे एक तो सत्ता पर अपने अवांछित कामों के लिए प्रेशर बनाया जा सकता है, साथ ही साथ आरक्षण की माँग भी की जा सकती है कि संख्या बल में वे जब इतने हो गए हैं तो सत्ता और सरकारी नौकरियों में इतनी प्रतिशत सीटें तो उनकी भी बनती हैं। 

राष्ट्रीय अध्यक्ष ने फिर ज़रा और आगे यह सोचा कि क्यों न चुनाव के चलते दिल्ली के रामलीला मैदान में अपनी बिरादरी के सिर पर हुंकार भर अपने राजनीतिक हित भी साध लिए जाएँ। वैसे भी चुनाव के दिन अपनी जात बिरादरी का बल दिखाने के सबसे बेहतर दिन होते हैं। इस बहाने उनको किसी पार्टी से टिकट मिल गया तो वैधानिक तरीक़े से जनता का ख़ून चूसने का और भी मज़ा। सुरक्षा गार्डो के घेरे में घिरे जो जनता का ख़ून चूसने में आनंद होता है वैसा अँधेरे कोनों में छुपकर चूसने में कहाँ। 

यह सोच विचार कर मच्छरों के राष्ट्रीय अध्यक्ष ने तमाम प्रांताध्यक्षों को व्हाट्सएप ग्रुप पर अपने पीए से मैसेज करवाया—राष्ट्रीय मच्छराध्यक्ष चाहते हैं कि वे दिल्ली के रामलीला मैदान में अति शीघ्र अपनी समस्त बिरादरी का अखिल भारतीय राष्ट्रीय सम्मेलन करने के इच्छुक हैं तो वे तुंरत राज़ी हो गए। कारण, अभी दिल्ली में इतनी गर्मी नहीं हुई थी कि देश के प्रांतों से मच्छरों को वहाँ आने में दिक़्क़त होती। 

तय तिथि को पूरे देश के मच्छर अखिल भारतीय मच्छर सम्मेलन में अपनी अपनी गाड़ियों, सरकारी गाड़ियों, रेल से बिना टिकट लिए रामलीला मैदान में पहुँच गए। रामलीला मैदान में जिधर देखो मच्छर ही मच्छर! तिल धरने को जगह नहीं। तब एक बार फिर देश को समर्पित देशभक्त मच्छरों को यह देख प्रसन्नता हुई कि असामाजिक तत्वों द्वारा उनका लाख विनाश करने की कोशिशों के बाद भी उनकी ऐसी ऐसी नई प्रजातियाँ पैदा हो गई हैं जिनका उन्हें आज ही पता चल रहा है। वैसे ख़ून चूसने वालों की प्रजातियों में कोई कमी आ भी नहीं सकती। क़ानून चाहे कितने ही प्रयास क्यों न कर ले। सरकार ज्यों-ज्यों ग़रीबी के वायरस को ख़त्म करने के लिए एक से एक आधुनिक योजना का छिड़काव समाज में करती है, त्यों-त्यों ग़रीबी उतनी ही बढ़ती जाती है, उसी तरह बाज़ार में एक से एक मच्छरों को मारने की दवाइयाँ उपलब्ध होने के बाद भी मच्छर दिन दुगने रात चौगुने बढ़ते जाते हैं। 

रामलीला मैदान में मच्छरों ने मत पूछो क्या ग़ज़ब की डेकोरेशन करवा रखी थी। मंच ऐसा कि इंद्र भी जो उसे देख लेते तो उन्हें अपना सिंहासन उस मंच के आगे तुच्छ लगने लगता। 

जब प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के सारे पत्रकार आ गए तो मंच पर अखिल भारतीय मच्छर संघ के राष्ट्रीय अध्यक्ष मंचासीन हुए। तोंद इतनी बड़ी कि उनसे वह सँभाली नहीं जा रही थी। नेता चाहे जनता का हो या मच्छरों का। सबके गुण धर्म, चाल चलन एक से होते हैं। अपने राष्ट्रीय अध्यक्ष को मंच पर आते देख सारा रामलीला मैदान मच्छरों की तालियों से गरज उठा। उनकी तालियों की गर्जन जब पार्टी मुख्यालयों के कानों में पड़ी तो वे चौकन्ने हुए। 

तब अखिल भारतीय मच्छर संघ के राष्ट्रीय अध्यक्ष ने समस्त पत्रकारों की जातियों-प्रजातियों को संबोधित करते हुए कहा, “हे इस मच्छर सम्मेलन को कवर करने पधारे समस्त प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के परमादरणीय पत्रकार बंधुओ! आपको मेरा नमन! आप महान हो! मुझे आपको यह बताते हुए हार्दिक प्रसन्नता हो रही है कि सरकारों की लाख कोशिशों के बाद भी हम अपनी जगह मज़े से बने हुए हैं। बाज़ार में हमें मारने की आज उतनी ही दवाइयाँ उपलब्ध हैं जितनी सरकार के पास ग़रीबी को मारने के प्रोग्राम। मुझे आपसे यह साझा करते हुए ख़ुशी हो रही है कि घर-घर में हमें मारने की एक से एक घरेलू, साइंसीय तकनीक आने के बाद भी हम ठीक उसी तरह निरंतर बढ़ रहे हैं जैसे ग़रीबी को मारने की एक से एक सरकारी योजना के बाद भी देश में ग़रीबी फ़ुल स्पीड से बढ़ रही है। सच कहूँ तो इस देश से हम और ग़रीबी कभी ख़त्म नहीं हो सकते। 

“हे मेरे पत्रकार बंधुओ! आज बाज़ार में हमें मारने की असंख्य दवाइयाँ सहज उपलब्ध हैं। इतनी कि इतनी तो आदमी को बचाने की भी नहीं। फिर भी पर हम पानी की टंकी से लेकर संसद के कोने तक आज भी सजे हुए हैं। जिस तरह बाहुबलियों का क़ानून कुछ नहीं बिगाड़ सकता उसी तरह हमारा ये मच्छर नाशक दवाइयाँ कुछ नहीं बिगाड़ सकतीं। जिस तरह बाहुबलियों को क़ानून नई ऊर्जा देता है, उसी तरह ये मच्छर मार दवाइयाँ हमें चिरायु बनाती हैं। 

“पर हमें पाँच किलो मुफ़्त आटे पर मौज मनाने वाली जनता का ख़ून चूसते हुए दुख ज़रूर होता है। हमें फ़ील होता है कि जब जनता का ख़ून चूसने वाले ऊपर से लेकर नीचे तक बैठे हैं तो ऐसे में हम जनता का ख़ून चूस जनता से अन्याय कर रहे हैं। पर क्या कर सकते हैं? जनता बनी ही शोषण के लिए है। जब उसकी जात के ही उसके प्रति संवदेनशील नहीं तो हम क्यों हों? इस मंच से मैं हर राजनीतिक पार्टी तक ये बात पहुँचाना चाहता हूँ कि अब हम सत्ता में अपना हिस्सा लेकर रहेंगे। 

“मच्छर एकता! ज़िंदाबाद!” 

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