अंधास्था द्वारे, वारे-न्यारे
डॉ. अशोक गौतमवह हमारे मुहल्ले की धर्म कल्याण सभा के मंदिर का नया-नया पुजारी नियुक्त हुआ था। मुहल्ले की तथाकथित धर्म भीरू कमेटी को मुहल्ला कल्याण हेतु उसे रखने की ज़रूरत न पड़ती जो पहले वाला पुजारी हफ़्ता पहले माता का सोने का पानी चढ़ा शृंगार का सामान असली समझ दिन-दहाड़े उड़ा भाग न गया होता। उसने दो महीनों में ही मुहल्ले के भक्तों तो भक्तों, मंदिर की माता की आँखों पर विश्वास की ऐसी पक्की पट्टी बाँधी कि मंदिर में बरसों से रहने के बाद भी दिन के उजाले तक में उसके सिवाय उसे कोई दूसरा न दिखता।
मौक़ा मिलते ही उसने भक्तों की आँख बचा , माता की खुली आँखों के सामने पूरी आस्था से माता का नक़ली सोने का पानी चढ़ा शॄंगार का सामान असली समझ पोटली में बाँधा और दिन के उजाले में मज़े से हवा हो लिया ताकि उसे कोई उसे चोर न कहे। उसे जाता देख मंदिर की माता ने शोर मचाना चाहा पर उसने जाते-जाते माता के मुँह पर ऐसी कसकर पट्टी बाँधी कि जब भक्त शाम को वहाँ पूजा करने आए तो उनसे भी न खुली। तब एक भक्त दौड़ा-दौड़ा घर जाकर छुरी लाया और माता के मुँह पर बँधी पट्टी काट कर खोली तो माता ने चैन की साँस ली। जो कुछ और देर हो गई होती तो माता का तो दम ही घुट जाता।
उसके बाद कमेटी द्वारा नया पुजारी रखा गया उसके चरित्र की गहन छानबीन करने के बाद। हर चरित्रहीन मुहल्ले वाले तक ने भी चरित्र और उसका प्रमाणपत्र ग़ौर से चेक किया। जब उन्हें वह और उसका चरित्र प्रमाणपत्र दोनों ठीक लगे तो उसे माता के चरणों में बैठ ठगी करने की मौन स्वीकृति दे दी गई।
पर हुआ कुछ यों की इधर वह मंदिर का नया पुजारी नियुक्त हुआ तो उधर माता हर बरस की तरह साल में भक्तों के हितार्थ आठ महीने दिन रात जागते रहने के बाद अपनी मूर्ति से अन्य भगवानों सहित चार महीने सोने निकल गईं।
वह बेचारा नया-नया पुजारी था। सो उसे धर्म के व्यापार का इतना पता न था। उस सुबह ज्यों ही एक भक्त ने उससे उस दिन के शुभ मुहूर्त के बारे में जानना चाहा और उसने ज्यों ही पंचांग खोला तो पाया कि कल से भगवान सोने जाने वाले हैं। वह भी पूरे चार मास के लिए!
यह देख वह परेशान हो गया। अब चार महीने वह खाएगा क्या? देखते ही देखते पूजा पर पेट भारी होने लगा। अब इन दिनों सोई माता के दर्शन करने आएगा कौन? कोई आ ही गया तो माता को वह जगाएगा कैसे कि उठो माँ! आपके द्वार लालची भक्त आया है। उठो, उसके चढ़ाए पैसे मुझे दे उसे आशीर्वाद दो। भले ही पैसों से ख़रीदे आशीर्वाद फलीभूत कम ही होते हों तो होते रहें। पर इसकी परवाह किसे? वैसे जबसे भक्तों की इधर-उधर से लपक-ढपक परचेज़िंग पॉवर बढ़ी है, वे हर चीज़ का लड़-झगड़ औना-पौना दाम चुका कर ही साँस लेते हैं। उन्हें भी लगता है कि उन्होंने मुफ़्त का माल, आशीर्वाद नहीं ख़रीदा है। न लाला से, न भगवान से। वे सबकी पेमेंट निरंतर कर रहे हैं।
उसने फिर सोचा, एक-दो बार तो चलो ठीक है। पर जो उसने बार-बार सोई माँ को जगाया और वे ग़ुस्से हो गईं तो? सोचते-सोचते वह तरह-तरह की चिंताओं में डूब गया। उसका मन किया कि जब भगवान क़ायदे से चार महीने के लिए सो ही गए हैं तो क्यों न वह कुछ और ही पार्ट टाइम धंधा कर ले। चार महीने की ही तो बात है। आठ महीने तो उसीके हैं।फिर सोचते-सोचते सवाल पुजारी की मार्यादा का उठा। भगवान की बगल में चौबीसों घंटे रहने वाला जो कोई और काम करता समाज ने देख लिया तो जनता का पुजारी बिरादरी पर से विश्वास उठा जाएगा। धर्म की मान्यता है कि भगवान की बगल में रहने वाला जीव उसकी बगल में रहते हर अनैतिक काम कर सकता है पर कोई दूसरा ईमानदारी का काम नहीं कर सकता।
तभी अचानक मैं उस वक़्त मंदिर चला गया। पता नहीं क्यों? शायद सोचा, नए पुजारी को ही देख आऊँ। वैसे अब मंदिर में चुराने को कुछ ख़ास नहीं बचा था। यही माता समेत दो तीन भगवानों की पत्थर की मूर्तियाँ। पर चोरों का क्या, वहाँ से मूर्तियाँ उठाईं और अगली जगह शुरू कर दिया आस्था का धंधा। वैसे हर धंधे को नई जगह जमाने को समय लगता है। पर आस्था का धंधा ही एक ऐसा धंधा है जहाँ ठीया लगाया वहीं पलक झपकते जम जाए। पुजारी की उम्मीदों के बहुत आगे।
देखा तो पुजारी उदास। पहली बार पता चला कि यह दौर मंदिरों से बाहर ही उदास रहने का दौर नहीं, मंदिरों के भीतर रहने के बाद भी उदास होने का दौर है। हम सबकी भूख पेट से अधिक जो बढ़ गई है। फिर सोचा, नया-नया पुजारी है, बीवी बच्चों से अलग होकर आया है। उनकी याद आ रही होगी बेचारे को। मोह-माया तो लकड़ियों पर भी नहीं छूटती, ये बंदा तो मंदिर में है। दूसरे, हमारे मुहल्ले के भक्तों को तो छोड़िए, अभी वह मंदिर के भगवानों के साथ तक इतना घुला-मिला नहीं था कि उनसे बतिया सके, सो उसका मन लगाने के लिए उसके पास बैठ गया। खूब जमेगा रंग, जब मिल बैठेंगे यार तीन! मैं, वह और मंदिर के भगवान।
उसे उदास देख मैंने उससे पूछा, "बंधु ये क्या? भगवान का दायाँ हाथ होने के बाद भी उदास? यहाँ तो लोग भगवान का नाम लेने मात्र से भवसागर पार होते रहे हैं।"
"क्या करूँ बंधु! बात ही कुछ ऐसी है कि....”
“बीवी की याद आ रही है क्या? बीवी कमबख्त होती ही ऐसी है कि उससे चाहे कितने ही जूते खाओ, याद आ ही जाती है,” कह मैंने उससे अपना सच कहा तो उसने कहा, "नहीं भक्त! ऐसा नहीं। असल में चिंता यह है कि भगवान चार मास को सो रहे हैं।”
“तो क्या हो गया! वे भी तो बेचारे थक जाते हैं। आराम की ज़रूरत यहाँ किसे नहीं?”
“पर इस बीच मेरा क्या होगा? भगवान सो गए तो मंदिर में तो चींटी भी न आएगी। कोई नहीं आएगा तो मैं खाऊँगा क्या?” उसने मरी आवाज़ में कहा तो मैं उसकी चिंता समझ गया। अपनी जगह वह भी सच्चा था। आदमी चाहे अपने को कितना ही विस्तार क्यों न दे ले, पर होता वह आत्मकेंद्रित ही है।
“अरे, भगवान ही तो सो रहे हैं। भक्त तो जागे हैं न?” मैंने उसे काग़ज़ी हौसला देते कहा तो उसने ग़ुस्साते पूछा, “पर सोए भगवान के पास आकर जागा भक्त क्यों अपना समय ख़राब करेगा?”
“तुम्हारे सिवाय किसको पता है कि भगवान चार महीने तक सो गए हैं? सो भी गए तो क्या हो गया! चैबीसों घंटे नींद में रहने वाला भक्त उनके सामने आ जब सोया-सोया घड़ियाल बजाएगा तो उन्हें जागना ही होगा। सोए भक्त की भक्ति में वह शक्ति होती है कि वह सोए भगवान को लाख न चाहते हुए जागने को विवश कर देती है।”
“मतलब??”
“वो देखो, सोए भगवान को जगाने नींद में चलते भक्तों का टोला आ रहा है,” मैंने सामने से पाँच-सात नींद में चल रहे भक्तों को गला फाड़ कीर्तन करते आते उसे दिखाया तो वह गदगद हो उठा। वह समझ गया कि भगवान के सोने या जागने से मंदिर के पुजारी को कभी कोई ख़तरा नहीं। बल्कि कई बार तो सोए भगवान जागे भगवान वाले दिनों से अधिक कमाई करा जाते हैं।
सामने से निद्रा में चल रहे भक्तों के टोले को आता देख उसने अपनी सांसारी काया त्याग पुजारी वाली काया धरी और सोए भगवान के आगे यों अकड़ कर बैठ गया ज्यों सोए भक्तों के हित के लिए उसने कभी न सोने की क़सम खा रखी हो।
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