गणतंत्र
अभिषेक पाण्डेयफूला जिनसे गणतंत्र सुमन,
हँसते हँसते जो वेदी पर झूल गए,
उनके गौरव इतिहासों को
हम पन्नों में लिखकर भूल गए।
आज कहाँ मीराबाई के राग अलापे जाते हैं?
आज कहाँ दादू कबीर के शब्द सुनाये जाते हैं?
आज कहाँ महाराणा की हुंकार सुनाई पड़ती है?
आज कहाँ लक्ष्मीबाई की ललकार सुनाई पड़ती है?
आज कहाँ आज़ाद भगत की गाथा गायी जाती है?
आज कहाँ नेताजी की जयकार लगाई जाती है?
आज कहाँ बापू सा कोई व्रती दिखाई पड़ता है?
आज कहाँ वल्लभ पटेल सा यती दिखाई पड़ता है?
आज कहाँ भारतभूमि को स्वर्ग बताया जाता है?
आज कहाँ ऋषिओं मुनिओं को अर्घ्य चढ़ाया जाता है
आज कहाँ अर्जुन को कोई योग सिखाता है?
आज कहाँ रामों को कोई आदर्श बनाता है?
आज कहाँ साहित्यों में वो भाव दिखाई देते हैं?
आज कहाँ उपनिषदों में वो चाव दिखाई देते हैं?
आज कहाँ किसके अधरों में इंक़लाब चिल्लाता है?
सोये वीरों कों आज कौन झकझोर जगाने आता है?
आज पड़े हम सघन तिमिर की अंधी गहरी खाई में,
भूले अपने ही अतीत को दासता की परछाई में।
ओट लिए हम धर्मों की, कायरता दिखलाते जाते हैं
युद्ध जरूरी जहां हुआ, वहां शास्त्र सुनाये जाते हैं।
जाने कितने गणतंत्र गए हम बधिरों के न कर्ण खुले
भारत माँ का शृंगार धुला, हम अंधों के न चक्षु खुले1।
गणतंत्र आज भी आया है, क्या सोते ही रह जाओगे?
आज याद कर वीरों को क्या फिर पन्नों में दफ़नाओगे?
जागो तुम हे वीरप्रवर! अब तो प्रचंड हुंकार भरो,
विस्तृत नभ के कोनों में जय भारत का अनुनाद भरो।।
1. (१९६२ भारत-चीन युद्ध)
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