चिंता

अभिषेक पाण्डेय (अंक: 288, नवम्बर द्वितीय, 2025 में प्रकाशित)

 

धरती को भला क्या चिंता है 
मैं न बो सका तो कोई तो बोयेगा ही 
मेरे झरने के बाद भी 
आकाश में बचे रहेंगे असंख्य तारे 
मेरे जल चुकने के बाद भी 
अग्नि को मिल जाएगी नई ख़ुराक 
मेरे शुष्क होने के बाद भी 
कहीं तो बची रहेगी तरलता 
मुझ अशक्त को छोड़कर हवा 
काठी चढ़ा लेगी किसी नए घोड़े पर 
पता नहीं व्यष्टि में चिंताहीन तत्त्व मिलकर
कैसे देते हैं
चिंता जैसी किसी वस्तु को जन्म? 

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