धरा के निश्वासों में न ढूँढ़ो गगन को

15-06-2022

धरा के निश्वासों में न ढूँढ़ो गगन को

अभिषेक पाण्डेय (अंक: 207, जून द्वितीय, 2022 में प्रकाशित)

धरा के निश्वासों में न ढूँढ़ो गगन को, 
ये उजड़ी है बग़िया न ढूँढ़ो सुमन को॥ 
 
ख़ूब पीड़ा घुली है हमारे मनों में, 
वही है पिघलती सृजन के क्षणों में, 
आँसू बताते हैं मेरी कहानी, 
प्रतीक्षा ने लीली है सारी जवानी, 
सिसकियों के घर में न ढूँढ़ो अमन को, 
धरा के निश्वासों में न ढूँढ़ो गगन को॥
 
मरु में हवा धूल के घर बनाती, 
पुनः फूँक देकर उन्हीं को उड़ाती, 
हमने भी कल्पित भवन थे बनाये, 
छोटी सी आशा के ऊपर टिकाये, 
पर जाने कहाँ से प्रबल वात आया? 
क्या क्या न तोड़ा? क्या क्या न उड़ाया? 
खंडित बुतों में न ढूँढ़ो किशन को, 
धरा के निश्वासों में न ढूँढ़ो गगन को॥
 
दिशाएँ बँधी अब तम के करों से, 
विधि घाव देती भयंकर शरों से, 
विलोपित तितलियाँ मेरे उपवनों से, 
जड़ें कट गईं हैं हमारे तनों से, 
बुझे स्वर, नीरवता की केवल बसर है, 
गाँवों के तन में बचा बस शहर है, 
राखों की ढेरी में न ढूँढ़ो सृजन को, 
धरा के निश्वासों में न ढूँढ़ो गगन को॥
 
ताने है भृकुटि लहर की कमानी, 
गले तक भरा है बारिश का पानी, 
फँसे पाँव दलदल में गहरे हमारे, 
नौका से दिखते न तट के किनारे, 
भले जय बड़ी हो हमारे सरों से, 
पर, कटारें न छूटीं हमारे करों से, 
चंडी के दर पर न ढूँढ़ो मदन को, 
धरा के निश्वासों में न ढूँढ़ो गगन को॥
 
छेड़ी जो तानें सरगम के ऊपर, 
निकली सभी वो हृदय मेरा छूकर, 
रचे छंद जो भी उनमें नमी है, 
लिखना प्रमाणे कि कोई कमी है, 
मेरे बँध में तुम न ढूँढ़ो कसन को, 
धरा के निश्वासों में न ढूँढ़ो गगन को॥

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