मित्र के प्रति! 

01-05-2023

मित्र के प्रति! 

अभिषेक पाण्डेय (अंक: 228, मई प्रथम, 2023 में प्रकाशित)

 

नदी की धारा यहाँ तक आते-आते
एकदम पतली हो गई है
हम दोनों ने नए-नए जलस्त्रोत खोजने शुरू कर दिये हैं
और उसमें सफल भी हो चुके हैं 
अब हमें नदी के पानी की शायद आवश्यकता नहीं! 
बहुत दिन हमने सूरज को साझा किया
रात को भी दो हिस्सों में बाँट लिया
हमारे कंधों ने बोझों को आपस में बदला
हमने अपने डरों को एक दूसरे के साहस से समाप्त किया 
पर दिन अंतहीन तो नहीं होता
अंधकार की अमरबेल जकड़ ही लेती है
आख़िर में ताक़तवर हरे भरे वृक्ष को
शेष बचती है केवल
मृत्युशय्या पर पड़ी उम्मीद
जिसकी नाड़ी धीरे-धीरे मंद होती चली जाती है! 
यह कविता तो निराश होकर आँखें मूँद रही है
पर अब जब हम एक दूसरे की सहानुभूति के पात्र नहीं बचे 
यहाँ तक कि एक दूसरे की घृणा के भी पात्र नहीं रहे! 
सम्भावना है; हम अपरिचितों की तरह पुनरावृत्ति करें! 

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