गौमाता
अभिषेक पाण्डेय
नामजापक हो गए हैं इंद्र
पर तू अभी भी त्याज्य, मलिन, परित्यक्त
नपुंसकों की शब्द-संस्कृति की कर रही जुगाली
अप्सरा के नृत्य में हैं लीन
पूत तेरा मोह तज हो गए उदासीन
बाहर शहर के एक कूड़ागार
उच्छिष्ट मानव का तुझे देता हुआ आहार
पसलियों में धँस रहे हैं देह के सब देव
प्रच्छन्न तुझसे हो चुके हैं नाम के भूदेव
सत्य माता दुर्दशा यह आस्तिकों का दंश
तीर तुझ पर वे चलाते जो कि कहते हँस
दुष्ट-युग की पूजनीया है विकट अभिशाप
यह प्रबलतम व्यंग्य है क्रूरतम उपहास
अब न माँ तू पृष्ठभूमि वैदिक ऋचाओं की
संस्कृति-पंक्षियों की तू न माता गेह
याद तुझको भी न पड़ता है कि कोई मंत्र?
क्रोध आता है नहीं क्या देखकर षड्यंत्र
उपयोगिता केवल है तेरी नृप के चयन तक
दुग्ध तेरा है ज़रूरी शिशु के शयन तक
मूर्त में है वक्रदृष्टि शब्द-माता मानता है
हो चुका है विज्ञ मानव, बहुत ज़्यादा जानता है
यह विचारों का संघर्षण आग पैदा ही करेगा
यह कुटिल विष-पुष्प वृन्त से जल्दी झरेगा॥
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