पायदान की आत्मकथा
अभिषेक पाण्डेय
मैं किसी भव्य कमरे के बाहर पड़ा हुआ हूँ—अंदर की स्वच्छता को ललचाई आँखों से निहारता हुआ! जो भी आता है मेरे नरम-नरम गालों पर अपने काले-भूरे बूटों का कीचड़ पोंछता है और अंदर प्रवेश कर जाता है! मैं इस मज़दूरी का फल पाने के लिए हाथ बगारे पड़ा रह जाता हूँ पर दरवाज़ा बंद हो जाता है और खिड़कियाँ भी अंदर की ओर मुँह घुमाकर एक दूसरे से बतियाने लगती हैं! दुःखी होकर मैं अपने जीवन की निरर्थकता पर विचार करता हूँ!
अचानक एक दृष्टांत मेरे मन में कौंधता है—केवट राम से ज़िद कर रहा है पैर प्रछालन के लिए! कथा वाचने वाले बता रहे कि केवट डर रहा कि कहीं राम के पाँव की धूल उसकी नाव को बोलने वाली अहिल्या न बना दें!
मुझे बात कुछ दूसरी लग रही! केवट को असल डर यह है कि कहीं धूल का कण ये न देख ले कि वो नाव कितनी भव्य और विशाल है जिस पर चढ़ने से उसे वंचित किया जा रहा, फिर सारे पत्थर कहीं सजीव होकर पूछने लगें कि क्यों भाई! हम पर रगड़-रगड़ कर अपने पाव सफ़ेद करके कहाँ को भागे जा रहे हो? तो क्या उत्तर दूँगा?
अभी कल तड़के ही एक स्वप्न देख रहा था कि कोई नारी अपना मुकुट पहनती है, सागर में अपने चरण धोती है तत्पश्चात् लखनऊ में पड़े मेरे और चम्पारण में पड़े मेरे भाई के गालों पर अपने पैर पोंछती है और दिल्ली के किसी सफ़ेद पुते बँगले में ग़ायब हो जाती है! राजघाट पर पड़ा कोई पुराना चश्मा उठाती है, उसके लेंस बदलवाकर उसे पहनती है। पीछे नगर निगम के मंत्री की पीठ ठोकती है और ठहाका लगाकर हँसती है!
भाई! अब मैं तिरस्कृत सा हो गया हूँ! मैं किसी प्रियजन की मृत्यु में अपना सर तो घुटाता हूँ पर शादियों में निमंत्रित नहीं किया जाता हूँ! मैं सिंहासन के नीचे पड़ा हूँ, पाँव बदलते जा रहे हैं और मैं खुरदुराता जा रहा हूँ, गन्दा होता जा रहा हूँ!
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