वृक्ष का कटना

15-11-2025

वृक्ष का कटना

अभिषेक पाण्डेय (अंक: 288, नवम्बर द्वितीय, 2025 में प्रकाशित)

 

सड़क चौड़ी होनी थी 
सो उसे कटना पड़ा। 
 
मृत्यु की प्रतीक्षा के समय भी 
वह खड़ा था 
अपने पूरे हरेपन के साथ 
उसके सिरहाने भीड़ थी 
उसके परिवार की—
पत्तियाँ, फूल और फल की। 
 
उसके फूल अभी भी भौरों को रस पिला रहे थे
उसके फल अभी भी बच्चों के मुँह में लार ले आते थे
उसकी डाल पर अभी भी झूले की रस्सी का निशान था 
उसके तने की मोटाई ने मेरे घेरे का अब भी उल्लंघन नहीं किया था 
 
मृत्यु से पहले मुझसे मिलने के लिए 
उसने भेजी थी एक चिड़िया
एक नीम की दातून
दाँत खोदने की सींक
बचपन की फोटोज़
और एक स्मृति चिह्न—
जिसमें वो अंजुली लगाकर बैठा है 
और मैं पानी डाल रहा हूँ 
उसकी बड़ी सी प्यास पर झुँझलाते हुए
 
वो अपने जैसा ही समझता था मुझे—
जड़ों में जड़ा और आकाश में भी बड़ा! 
मैं अपने आदमी होने का महत्त्व जानने लगा था 
मैं न गया! 
 
शाम को एक ठूँठ से मिला हूँ
एक भूरा सा धब्बा उसके ऊपर है 
मैं तय नहीं कर पा रहा? 
यह पेड़ की लाश है? 
यह किसी आत्मीय कविता की लाश है? 
या यह मेरे हरेपन की लाश है?

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