आहटें आती रहीं पर तुम न आई

01-07-2022

आहटें आती रहीं पर तुम न आई

अभिषेक पाण्डेय (अंक: 208, जुलाई प्रथम, 2022 में प्रकाशित)

आहटें आती रहीं, पर तुम न आई॥
 
सैकड़ों के चरण छूते इन मगों को
हर बार छलती आस मेरे इन दृगों को
आगमन का संकेत देता काक बैठा डाल पर, 
मैं लुटा देता स्वयं को हर किसी की चाल पर, 
सात्वनाएँ आती रहीं, पर तुम न आई . . . 
 
रात का पर्दा हटाकर किरण झाँकी जब सबेरे
लगा मानों कलरवों से भर जायेंगे बंजर बसेरे, 
मैं बजाता बाँसुरी पर तान कोई, 
ज़ोर से तुमको बुलाता गान कोई, 
तालियाँ आती रहीं, पर तुम न आई . . .
 
खोजता तुमको रहा मैं देश के भूगोल में, 
बेचता वाणी फिरा मैं कौड़ियों के मोल में, 
बंद द्वारों सामने मैं खड़ा रहता प्रहर भर 
और गाँवों के बगीचों में बहुत ढूँढ़ा मगर 
अमराइयाँ आती रहीं, पर तुम न आई . . . 

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