रात 

अभिषेक पाण्डेय (अंक: 289, दिसंबर प्रथम, 2025 में प्रकाशित)

 

थककर सोता हूँ 
तो बेहोशी आती है 
नींद नहीं 
सपने नहीं आते 
रात चुपचाप घाव भरती है 
 
सितारे ऐसे लगते हैं 
जैसे आकाश की थकी देह पर 
चमकीली पसीने की बूँदें! 
 
चन्द्रमा कोई अर्थ नहीं खोलता
चेचक के दाग़ वाला एक अधिकारी
चक्कर लगाता है मेरी नींद के 
 
स्वतंत्रता, सिवाय इसके क्या अर्थ रखती है
दिनचर्या के लौट आने तक बेहोश होने की आज़ादी! 

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