भटकन!

अभिषेक पाण्डेय (अंक: 221, जनवरी द्वितीय, 2023 में प्रकाशित)

कुछ लोग भटकते हैं 
जैसे प्रेत भटकता है
किसी नए शरीर की खोज में! 
 
जैसे आग भटकती है
एक से दूसरी
दूसरी से तीसरी झोंपड़ी तक! 
 
जैसे तूफ़ान मँडराता है
किसी दिये के आसपास 
 
जैसे सेनाऐं धँसती हैं 
भौगोलिक सीमाओं के अंदर 
ऐसे मत भटको! 
 
इससे अच्छा ऐसी भटकन स्वीकार
जैसे भूख भटकती है
ट्रेनों और बसों में हाथ फैलाए! 
 
मैं तो ऐसे भटकता हूँ 
जैसे कविता भटकती है
एक दरवाज़े से दूसरे दरवाज़े तक! 
 
जैसे भ्रम भटकता है
एक आहट से दूसरी आहट तक! 

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