हतोत्साहित मन

01-11-2021

हतोत्साहित मन

अभिषेक पाण्डेय (अंक: 192, नवम्बर प्रथम, 2021 में प्रकाशित)

सिसक रहा सूना आँगन,
मुरझाया है अब अंतर्मन,
लहरें गिरतीं खाकर पछाड़,
रोता प्राणों का तार तार॥
 
अब जीवन से आलोक गया,
मन मानस में अँधियार भया।
सुख साधन सब ले विदा-विदा,
जीवन दुःख का जंजाल भया॥
 
सब सपनों की मेरे क़ब्र बनी,
अपनों ही की है भृकुटि तनी।
संकट की निर्मम छूरी से,
घायल होकर यह देह छनी॥
 
जीवन-नौका मँझधार फँसी,
दिखता न दूर किनारा है।
दो डग भी नहीं चला जाता अब,
यह मन अंदर से हारा है॥

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