व्यवस्था 

15-09-2025

व्यवस्था 

अभिषेक पाण्डेय (अंक: 284, सितम्बर द्वितीय, 2025 में प्रकाशित)

 

तुम इतनी जड़ हो पर तुम्हें पेड़ नहीं कह सकता 
तुम इतनी विशाल हो पर तुम्हें आकाश कहने में शर्म आती है 
तुम्हारी लाख आँखें हैं पर तुम्हें अंधा कहना समुचित जान पड़ता है 
तुम इतना बोलती हो पर उसे पक्षियों के सुर की उपमा कदापि नहीं दे सकता 
तुम जितना फैलती हो उतना ही सिकुड़ती जा रही हो 
तुम जितना जकड़ती हो उतना ही बिखरती चली जा रही हो 
तुम्हारे इस शरीर में असाध्य बीमारियाँ देख रहा हूँ मैं
खिड़कियों पर अट रहा सूर्य हुआ देख रहा हूँ
तुम्हारे विस्तार में ही तुम्हारा नाश देख रहा हूँ मैं! 

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