थिरक थिरक रे थिरक थिरक मन . . . 

15-05-2022

थिरक थिरक रे थिरक थिरक मन . . . 

अभिषेक पाण्डेय (अंक: 205, मई द्वितीय, 2022 में प्रकाशित)

विच्छिन्न हुई मेघों की काली, 
पूरब में फिर आयी लाली, 
विस्मृत कर मृत कलिकाओं को, 
यौवन झूला डाली-डाली, 
विहंस उठा जीवन का उपवन, 
थिरक थिरक रे थिरक थिरक मन . . .। 
 
विदा हुई चिरकाल प्रतीक्षा, 
लेती थी जो अश्रु-भिक्षा, 
खुली वेदना की गठरी, 
पाया मैंने अमर प्रणय-धन, 
निर्मूल मिलन-पथ कंटक, घन, 
थिरक थिरक रे थिरक थिरक मन . . . ।
 
पथ चलने से कुछ घाव बने, 
तपते मरु मेरे ठाँव बने, 
फिर किसी महत्तर के कर से, 
ज्यों, लेपित हुआ तप्त तन-मन, 
मिल गई वृहत-तरु-छाँह सघन, 
थिरक थिरक रे थिरक थिरक मन . . .॥

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