जागी प्रकृति फिर एक बार . . . 

01-08-2022

जागी प्रकृति फिर एक बार . . . 

अभिषेक पाण्डेय (अंक: 210, अगस्त प्रथम, 2022 में प्रकाशित)

जागी प्रकृति फिर एक बार . . . 
 
प्रियतम सूरज से मिलने को, 
गह अश्रु-ओस कण धवल हार, 
तम के बन्धन को कर निर्मूल, 
जा रही क्षितिज के मिलन द्वार, 
जागी प्रकृति फिर एक बार . . . . . . 
 
प्रेमी भ्रमरों के पान हेतु, 
खुल रहे पुनः से कमल-द्वार, 
हवा कुलाँचे भर-भरकर, 
कर रही शीतलता का व्यापार, 
पंछी नीड़ों से निकल-निकल, 
कर रहे सकल दिशि मन्त्र उच्चार, 
सरसों के पौधे झूम-झूम, 
हर एक दिशा को चूम-चूम, 
सोंधी माटी की ख़ुश्बू भी, 
भर रही हृदय में नवल-धार, 
जागी प्रकृति फिर एक बार . . . 
 
मैं जो बैठा पथ पर हार, 
ले घोर निराशा, व्यथा भार, 
देख अमर का दृश्य महान, 
सुन मंद-मंद उत्साही गान, 
अब उद्यत करने को प्रहार, 
जागी प्रकृति फिर एक बार . . .॥

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