मैं कहता आँखन देखी

15-11-2025

मैं कहता आँखन देखी

अभिषेक पाण्डेय (अंक: 288, नवम्बर द्वितीय, 2025 में प्रकाशित)

 

कितना नरक है ये 
जिस पुरानेपन के मुँह पर रोज़ जूते लगाते हैं 
उसी से अन्न के लिए रिरियाते हैं 
और इस पागल प्रक्रिया में 
हम ख़ुद को जानवर होने के क़रीब पाते हैं! 
 
सूअर के थूथन-सा लगता है आकाश 
इस मैले से भरी धरती को 
चारों ओर से घेरे हुए 
 
उस मौरंग के ढेर में 
हग गया है कोई कुत्ता
जिससे राष्ट्र का निर्माण हो रहा है! 
 
लिंकन बनने की दौड़ में 
हम शायद और लेकिन बनकर रह गए हैं
हमारी लोकतंत्र की परिभाषा
केवल परीक्षा में दो नंबर का वादा है! 
तुम्हारा ये कहना 
कि मैं बढ़ा-चढ़ाकर बोल रहा हूँ 
तुम्हारी संवेदनहीनता, दिल्ली का इरादा है! 

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