ग़लतफ़हमी

15-10-2022

ग़लतफ़हमी

अभिषेक पाण्डेय (अंक: 215, अक्टूबर द्वितीय, 2022 में प्रकाशित)

बहुत बड़ी ग़लतफ़हमी है! 
हम आज़ाद नहीं हुए
हमारा मांस शेर के सामने से खींचकर
गिद्धों के सामने डाल दिया गया है
वो अपनी चोंच गड़ाते हैं
हमारे चीथड़े गोश्त में भीतर तक 
ज़्यादातर तो मुर्दे ही हैं 
पर कुछ विद्रोही कवि चीख पड़ते हैं 
नागार्जुन और धूमिल जैसे
बड़े बड़े लठैत अपनी शब्दों की लाठी लेकर
दौड़ पड़ते हैं उन्हें उड़ाने
वो इंतज़ार करते हैं उनकी लाठियाँ नीची होने का
और फिर लौट आते हैं मांस की ओर
हालाँकि उनकी कविताएँ उन पर लाठियाँ बरसती ही रहती हैं
पर शायद इतनी मार के वे अभ्यस्त हो चुके हैं! 

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