कविता में गाली!

01-08-2022

कविता में गाली!

अभिषेक पाण्डेय (अंक: 210, अगस्त प्रथम, 2022 में प्रकाशित)

सुसंस्कृत शब्दों को
क्रोध की रेती से घिस घिसकर
चाहे जितना नुकीला बना दिया जाए
वो नहीं भेद पाते दिल्ली की आँखों में पड़े पर्दे 
वो दम तोड़ देते हैं संसद तक पहुँचते-पहुँचते 
अब कविता में गाली का उपयोग आवश्यक हो गया है! 
या यूँ कहो बाध्यता बन गया है . . . 

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कविता
गीत-नवगीत
कविता - क्षणिका
हास्य-व्यंग्य कविता
कविता - हाइकु
कहानी
बाल साहित्य कविता
किशोर साहित्य कविता
विडियो
ऑडियो

विशेषांक में