फिर कभी! 

01-06-2022

फिर कभी! 

अभिषेक पाण्डेय (अंक: 206, जून प्रथम, 2022 में प्रकाशित)

मेरे गाँव की माटी हवा के झोकों के
साथ उड़ती है शहर की ओर
मुझे आशीर्वाद देने के लिए, 
महुवे के पत्ते फड़फड़ा फड़फड़ाकर
अपनी ध्वनि भेजते ही रहते हैं मेरी ओर
किवाड़ों की साँकलें हवा से हिलती हैं
और माँ चौंककर बाहर देखती है
फिर लौट जाती है अपने अंधकार में
गाँव मेरी ओर कुछ न कुछ भेजता ही रहता है, 
पर मेरे शहर की दीवारें बहुत मज़बूत हैं
एकदम अभेद्य! 
मैं सभी पत्रों का जवाब 'न' में ही देता हूँ, 
और अपनी निर्दयता छिपाने के लिए
लिख देता हूँ—अभी बहुत काम है
फिर कभी! 

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