सूर्य

अभिषेक पाण्डेय (अंक: 287, नवम्बर प्रथम, 2025 में प्रकाशित)

 

अग्नि के अनगिनत परमाणुओं को 
फुँकनी से पुकारती रही माँ 
धुएँ के समुद्र में 
एक चिंगारी दिन भर इंतज़ार करती रही 
हमारी आग का 
हमारी अटूट सर्दी के बीच में 
एक बूढ़ा उठा
और उसनें खखारकर थूकी
हमारी चिता की राख पर
प्रकाश की अंतिम किरण! 

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