प्रेम

अभिषेक पाण्डेय (अंक: 287, नवम्बर प्रथम, 2025 में प्रकाशित)

 

इस नमीहीन आकाश के तले 
बाँझ धरती पर खड़े होकर 
कुम्हलाये फूलों के बीच 
बेबसी ढोती हवा 
और किवाड़ पर साँकल चढ़ाए बैठी
डरी हुई दिशा को साक्षी मानकर 
कैसे कह दूँ कि मैं तुमसे प्रेम करता हूँ? 
हालाँकि मैं यह जानता हूँ तुम भी यही कहोगी—
कि तुम मुझसे प्रेम करती हो
पर इस कँटीली चढ़ान में कहाँ तक 
हम इस साथ को खींच सकेंगे
कब तक बची रहेगी तुम्हारी पीली साड़ी 
ख़ून के छीटों से 
कब तक हवा और पानी के शोधक यन्त्र 
कर सकेंगे अपना काम
हमारे बेडरूम आख़िर कब तक 
तूफ़ान को निरर्थक करते रहेंगे
तुम्हारे गालों की चिकनाई अभी 
बहुत दूर है मेरे हाथों के स्पर्श से 
तुम्हारे और मेरे होंठों के बीच में अभी 
एक गन्दी गाली गूँज रही है 
इस अंतरिक्ष में हमारे प्रेम के खिलने की 
अभी कोई सम्भावना नहीं है 
जहाँ अँधेरे प्रकाश के पहुँचने के पहले ही 
अपना साम्राज्य जमा चुके हैं
क्षमा करना मुझे
मैं दीवार पर टँगा कैलेण्डर नहीं बनना चाहता
जो आकाश को पहचानता है
उसी की ओर फड़फड़ाकर उड़ता है
पर कील के पाश में जकड़ लिया जाता है
उस पर भगवान बना है
पर वो व्यवस्था का बंदी ही तो है! 

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