वासना के पाश में 

01-09-2025

वासना के पाश में 

अभिषेक पाण्डेय (अंक: 283, सितम्बर प्रथम, 2025 में प्रकाशित)

 

सूर्य होता अस्त 
सिमटती जा रही है क्षितिज की परिधि, दृश्यमान क्षेत्र 
मकड़ियाँ बुन रही हैं जाल 
दृढ़, अधिक दृढ़ और दृढ़तर . . . 
और लगभग भागता सा 
मैं स्वघर की ओर 
एक अज्ञात भय प्रसारित
प्रतिध्वनित एक जानी या अजानी सिहरन 
जो कि द्विगुणित हो रही 
कुत्तों-सियारों की हूक-भूक में 
कि सहसा संकेत से कोई बुलाता उस गली की ओर 
जिसकी राह का मुख सूर्य के विरुद्ध
फिर किसी बीते हुए चक्र की विवश अनुपालना का आभास
अचानक जल उठी भट्टी कहीं पर 
शायद नाभि के आसपास
सहसा धँस रहा हूँ उस गली में 
भाप होती जा रहीं वैदिक ऋचाएँ
वाष्प बनकर उड़ रहें हैं—
गणित, विज्ञान, आगमन-निगमन, तर्क दर्शन
बढ़ गए हैं नख, त्वचा के बाल मोटे हो गए हैं
कि कोई झोंकता है और ईंधन
धुएँ के बीच उठती एक लपट
उम्र जिसकी बस ‘मिली सेकंड’ की 
फिर धुआँ ढकता दिशाओं को
फिर उपजती है वही ज्वाला
पर पुनः आवर्तित वही लघु अंतराल
फिर धुआँ और धुएँ के करोड़ों कण जो घुस रहे हैं आँख में 
किचमिचाते नेत्र ख़ुद को ही मसलते
थूकते से यथा शक्ति
ठंडी हो रही जलवाष्प उन वैदिक ऋचाओं की
सतह पर बूँद बनते गणित और विज्ञान
लालिमा की देह से उग रहे शत-करोड़ हाथ
बढ़ रहे मेरी ओर
घिस रहे नाखून मेरे 
विरल होते जा रहे मेरी त्वचा के बाल

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी
कविता
स्मृति लेख
गीत-नवगीत
कविता - क्षणिका
हास्य-व्यंग्य कविता
कविता - हाइकु
कहानी
बाल साहित्य कविता
किशोर साहित्य कविता
विडियो
ऑडियो

विशेषांक में