चराग़े-दिल

किस किस से बचाऊँ अपना घर
जब हाथ में है सबके पत्थर।

जो बात सलीके से कह दे
पहचान बने उसका ये हुनर।

दुनिया की सराय के महमाँ हम
क्यों रोज़ है कहते मेरा घर।

बेख़ौफ रहे मुमताज़ वहाँ
जो ताज को समझे अपना घर।

है तख़्त के नाकाबिल राजा
कुदरत की नवाजिश है उसपर।

क्या हाल सुनाते हम उनको
जो हाल से अपने है बेख़बर।

दुख में हो जिनकी आँखें तर
उन्हें खार चुभें जैसे नश्तर।

पाने की तमन्ना कुछ भी नहीं
सजदे में झुका जब ‘देवी’ सर।

<< पीछे : गई मुझको ये हवा जैसे आगे : ज़िदगी यूँ भी जादू चलाती रही >>

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