चराग़े-दिल

कुछ तो इसमें भी राज़ गहरे हैं
कहते गूँगे हैं सुनते बहरे हैं।

रिश्ते रिश्तों को अब भी ठगते है
झूठ के जब से सच पे पहरे हैं।

मेरी फ़रियाद कोई कैसे सुने
जो भी बैठे हैं लोग बहरे हैं।

लब हिलाना भी जुर्म ठहराया
मेरे होंटों पे गोया पहरे हैं।

फूल झड़ते हैँ उनकी बातों से
लफ़्ज जितने है सब सुन्हरे हैं।

वक़्त मरहम न बन सका अब तक
ज़ख़्म जितने भी हैं वो गहरे हैं।

ख़्वाब रेशम के बुन रही ‘देवी’
रात चाँदी, तो दिन सुनहरे हैं।

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