चराग़े-दिल

सोच की चट्टान पर बैठी रही
जाल मख़मल का वहीं बुनती रही।

कहने के क़ाबिल न थी उसकी जुबां
ख़ामशी की गूँज मैं सुनती रही।

हार मानी थी न कल तक, आज फिर
हौसले लेकर न क्यों चलती रही?

क्या बहारों से है मेरा वास्ता
मैं खिज़ाओं में सदा पलती रही।

जिसने तूफ़ां से बचाया था मुझे
सामने उसके सदा झुकती रही।

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