चराग़े-दिल

बंद हैं खिड़कियाँ मकानों की
क्या ज़रूरत नहीं हवाओं की।
 
सुर्ख़ुरू हो न ज़िंदगी फिर क्यों
साथ जब हों दुआएँ माओं की।
 
पास होकर भी दूर थी मंज़िल
भटके हम जुस्तजू में राहों की।
 
ये फसाना है बेगुनाही का
पाई हमने सज़ा गुनाहों की।
 
तन को ढाँपे है शर्म की चादर
पड़ न जाए नज़र परायों की।
 
डर से पीले हुए सभी पत्ते
आहटें जब सुनी ख़िज़ाओं की।
 
ढूँढें देवी उसे कहाँ ढूँढें
कुछ कमी तो नहीं ठिकानों की।

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