चराग़े-दिल

क्यों खुशी मेरे घर नहीं आती।
क्यों उसे मैं नज़र नहीं आती।

उसकी जानिब है हर कदम मेरा
पास मंज़िल मगर नहीं आती।

ऋतु जवानी की जब भी जाती है
लौट कर उम्र भर नहीं आती।

सूनी रातों में सोचती हूँ मैं
ख़ुशनुमा क्यों सहर नहीं आती।

रोज़ चांदी के तार बुनती हूँ
चांदनी रात पर नहीं आती।

ख़्वाब देखूं तो किस तरह देखूं
नींद तो रात भर नहीं आती।

जो हो मंज़िल-शनास ऐ ‘देवी’
इक वही रहगुज़र नहीं आती।

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