चराग़े-दिल

पुस्तक: चराग़े‍-दिल
लेखिका: देवी नागरानी
प्रकाशक: सरला प्रकाशन, 1586/1ई, नवीन शहादरा, दिल्ली - 110032
मूल्य:  २००/- रु० , १० डालर
सम्पर्क:  devi1941@yahoo.com

श्रीमती देवी नागरानी की सद्यः प्रकाशित ग़ज़ल -सँग्रह उनकी नवनीतम पुस्तक है। अपने बच्चों- कविता, दिव्या और दीपक को उन्होंने अहसासों का गुलदस्ता भेँट किया है इस किताब के मारफ़त।
    ग़ज़ल के विषय में श्री आर.पी. शर्मा 'महरिष्' इस किताब में छपे अपने लेख 'देवी दिलकश ज़ुबान है तेरी' में कहते हैः

"ग़ज़ल उर्दू साहित्य की एक ऐसी विधा है जिसका जादू आजकल सबको सम्मोहित किए हुए है। ग़ज़ल ने करोड़ों दिलों की धड़कनों को स्वर दिया है। इस विधा में सचमुच ऐसा कुछ है जो आज यह अनगिनत होंठों की थरथराहट और लेखनी की चाहत बन गई है। ग़ज़ल कहने के लिये हमें कुशल शिल्पी बनना होता है, ताकि हम शब्दों को तराश कर उन्हें मूर्त रूप दे सकें, उनकी जड़ता में अर्थपूर्ण प्राणों का संचार कर सकें तथा ग़ज़ल के प्रत्येक शेर की दो पंक्तियाँ या मिसरों में अपने भावों, उद्‌गारों, अनुभूतियों आदि के उमड़ते हुए सैलाब को 'मुट्ठी में आकाश, कठौती में गंगा, कूजे में दरिया, बूँद में सागर के समान समेट कर भर सकें।"

अब देखना ये है कि श्रीमती देवी नागरानी ग़ज़ल के विषय में क्या कहती हैः

"कुछ खुशी की किरणें, कुछ पिघलता दर्द आँख की पोर से बहता हुआ, कुछ शबनमी सी ताज़गी अहसासों में, तो कभी भँवर गुफा की गहराइयों से उठती उस गूँज को सुनने की तड़प मन में जब जाग उठती है तब कला का जन्म होता है। सोच की भाषा बोलने लगती है, चलने लगती है, कभी कभी तो चीखने भी लगती है।यह कविता बस और कुछ नहीं, केवल मन के भाव प्रकट करने का माध्यम है, चाहे वह गीत हो या ग़ज़ल, रुबाई हो या कोई लेख, इन्हें शब्दों का लिबास पहना कर एक आक्रति तैयार करते हैं जो हमारी सोच की उपज होती है।"

चराग़े‍-दिल' अहसासों का गुलदस्ता है जिसमें मेरे मन के गुलशन के अनेक फूल हैं जो कभी महकते है, कभी मुस्कराकर मुरझा जाते हैं, तो कभी पतझड़ के मौसम के साए में बिखर जाते है, पर दिल का चराग़ फिर भी जलता रहता है। जलते बुझते इन चराग़ों की रोशनी से अपने ह्रदय के आँगन को रोशन रखने की कोशिश में ये शब्द बोलने लगते हैं, जिन्हें हम ग़ज़ल कहते हैं।"
वह कहती हैः  

न बुझा सकेंगी ये आँधियाँ
ये चराग़े-दिल है दिया नहीं।

शब्दों के तीर छोड़े गये मुझ पे इस तरह
हर ज़ख़्म का हमारे दिल पर निशान था।

और ऐसी स्थिति आने पर वह दिस्तों के बारे में कहती हैः

ग़ैर तो ग़ैर है चलो छोड़ो
हम तो बस दोस्तों से डरते हें।

मुझे डर है देवी तो बस दोस्तों से
मुझे दुशमनों ने दिया है सहारा।

लेकिन इस डर को वह अपनी माँ की दुआओं से जीतने की कोशिश करती हैं, सुने वो क्या कहती हैः

लेके माँ की दुआ मैं निकली हूँ
दूर तक रास्तों में साए हैं।

जो रोशन मेरी आरज़ू का दिया है
मिरे साथ वो मेरी माँ की दुआ है।

अपनी माँ के साए और दुआओं के साथ जब वो खुद को बयान करती है तो देखिये किस नज़ाकत के साथ बयान कर रही हैं:

मैं तो नायाब इक नगीना हूँ
अपने ही साँस में जड़ी हूँ मैं।

ये नगीना जब अपने विचारों और सद्कर्मों से चमकता है तो देवी कहती हैः

यूँ ख़्यालों में पुख़्तगी आई
बीज से पेड़ बन गए जैसे।

और ये पुख़्तगी जब उन्हें उस स्वार्थी समाज की बात करने के लिये आमदा करती है तो उनका विचार किस कदर साफ़ बयानी दिखाता हैः

चाहत, वफ़ा, मुहब्बत की हो रही तिजारत
रिशते तमाम आख़िर सिक्कों में ढ़ल रहे हैं।

कितने नकाब ओढ़ के देवी दिये फरेब
जो बेनकाब कर सके वो आईना नहीं।

किस किस से बाचाऊँ अपने घर
जब हाथ में है सबके पत्थर।

इसी दौर से गुज़रते हुए अपने वजूद की पहचान पाते हुए कह रही हैः

ढूँढा किये वजूद को अपने ही आस पास
देखा जो आईना तो अचानक बिखर गए।

इस बिखरने में जब कभी उन्हें प्यार का इशारा सहारे के तौर पर मिलता है तो अपने अहसासों को किस अँदाज, में बयाँ कर रही हैः

कुछ तो गुस्ताख़ियों को मुहलत दो
अपनी पलकों को हम झुकाते हैं।

वो तो देवी है दिल की नादानी
जुर्म मुझसे कहाँ हुआ ह व।

जिसने रक्खा है कैद में मुझको
खुद रिहाई है माँगता मुझसे।

वो मनाने तो आया मुझे
रूठ कर ख़ुद गया है मगर।

इन अहसासों से गुज़रते हुए नागरानी जी के दिल में एक खामोशी कहीं बहुत गहरे तक छिप कर बैठ जाती है, लेकिन कमाल है यह ख़ामोशी बोलती है, चुप रह कर बात करती है, वह बड़ी खूबी से इस बात का जि़क्र करते हुए कह रही हैः

खामुशी क्या है तुम समझ लोगे
पत्थरों से भी बात कर देखो।

कहते हैं बिन कान दीवारें भी सुन लेती हैं बात
ग़ौर से सुन कर तो देखो तुम कभी ख़ामोशियाँ।

इन ख़ामोशियों को जब वह सुनती हैं तो उनकी आँखें तर हो उठती हैं

हुई नम क्यों ये आँखें बैठकर इस बज़्म में देवी
किसी ने ग़म को सुर और ताल में गा कर सुनाया है।

इस ग़म से निजात पाने के लिये वह बंदगी की बात किस नज़ाकत से ज़ाहिर कर रही हैं:

ख़ुद ब ख़ुद आ मिले ख़ुदा मुझसे
कुछ तो अहसास बँदगी में हो।

इसी बंदगी के साथ साथ वो आदमी की मेहनत, ईमानदारी और लगन से किये गए काम के नतीजे को देख कर क्या महसूस करती है, देखियेः

यूँ तराशा है उनको शिल्पी ने
जान सी पड़ गई शिलाओं में।

    श्रीमती देवी नागरानी ने दुःख सुख, सहानूभूति, साँसारिक उठा-पटक, प्रेम, वियोग, समाज के अनेक चेहरों को उजगार किया है अपने शेरों में। श्री आर. पी. शर्मा 'महरिष्' जी की इस्लाह से छपी यह पुस्तक दोष मुक्त है। देवी नागरानी ने 'महरिष्' जी के लिये कहा हैः

सारा आकाश नाप लेता है
कितनी ऊँची उड़ान है तेरी।

यह ग़ज़ल-संग्रह ग़ज़ल लिखने वालों में अपना स्थान बनायेगा ऐसी मुझे आशा है,

मा.ना.नरहरि
Shripal Van no।1, C wing, G-10
Kharodi Naka, Dist Thana
Virar E 401303


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