चराग़े-दिल

कैसे दावा करूँ मैं सच्ची हूँ
झूठ की बस्तियों में रहती हूँ।

मेरी तारीफ़ वो भी करते हैं
जिनकी नज़रों में रोज़ गिरती हूँ।

दुश्मनों का मलाल क्या कीजे
दोस्तों के लिये तो अच्छी हूँ।

दिल्लगी इससे बढ़के क्या होगी
दिलजलों की गली में रहती हूँ।

भर गया मेरा दिल ही अपनों से
सुख से ग़ैरों के बीच रहती हूँ।

गागरों में जो भर चुके सागर
प्यास उनके लबों की बनती हूँ।

जीस्त ‘देवी’ है खेल शतरंजी
बनके मोहरा मैं चाल चलती हूँ।

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