चराग़े-दिल

देखी तबदीलियाँ जमानों में
क्यों है वीरानियाँ मकानों में।
 
सख़्त ज़ख़्मी था आस का पंछी
कैसे उड़ता वो आसमानों में।
 
होश में था ख़ुमारे-मदहोशी
इक तमाशा था बादाखानों में।
 
धर्मों-मज़हब के नाम पर कैसी
छिड़ गई जंग बदगुमानों में।
 
पाँव की धूल रख ली माथे पर
जाने क्या मिल गया निशानों में।
 
आड़ में दोस्ती के अब ‘देवी’
दुश्मनी निभ रही घरानों में।

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