चराग़े-दिल

जितना भी बोझ हम उठाते हैं
उतनी गहराईयों में जाते हैं।
 
हार के खौफ़ ही हराते हैं
खेल से पहले हार जाते हैं।
 
मैं उठाकर नज़र उन्हें देखूँ
वो हमीं से नज़र चुराते है।
 
कतरा कतरा वजूद से लेकर
ख़्वाहिशों को लहू पिलाते हैं।
 
बदगुमानी का ज़हर है ऐसा
सब हरे पेड़ सूख जाते हैं।
 
जो ज़रूरत न कम कर सके देवी
वो कहाँ पल सुकूं के पाते हैं।

<< पीछे : वो रूठा रहेगा उसूलों से जब तक आगे : जो मुझे मिल न पाया रुलाता रहा >>

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