चराग़े-दिल

नगर पत्थरों का नहीं आशना है
मैं हूँ इसमें जिंदा मगर दिल मरा है।
 
न मेरी वो सुनते न अपनी सुनाते
न जाने खुदा को मेरे क्या हुआ है।
 
रहा लूटता वो वफ़ा के बहाने
ये माना अभी वो सनम बेवफ़ा है।
 
न छोटी खुशी से कभी मोड़ना मुँह
कि सुकरात का जाम हमको अता है।
 
मुझे छोड़ कर सबने पाए है मोती
नसीबों को शायद हमीं से गिला है।
 
न मायूस हो ज़िंदगी से ऐ ‘देवी’
यही एक जीने का मौसम भला है।

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