चराग़े-दिल

ज़िदगी यूँ भी जादू चलाती रही
वो ज़मीं आसमां को मिलाती रही।

दुख का विष जाम में वो पिलाती रही
ज़िंदगी अब वही मुझको भाती रही।

नफरतों पर बने प्यार के आशियां
मेरी उल्फ़त सदा धोखा खाती रही।

फिक्र क्या, बहर क्या, क्या गज़ल, गीत क्या
मैं तो शब्दों के मोती सजाती रही।

अपनी पलकों पे सपने सजाए थे जो
आँसुओं से उन्हें मैं मिटाती रही।

वह सुखों का जो पन्ना मुक़द्दर में था
बेरुख़ी से हवा वह उड़ाती रही।

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