चराग़े-दिल

पंछी उड़ान भरने से पहले ही डर गए
था जिनपे नाज़ उनको बहुत, बालो-पर गए।
 
तिनकों से मैंने जितने बनाए थे आशियां
जलकर वो ग़म की आग में कैसे बिखर गए।
 
इन्सानियत को खा गई इन्सान की हवस
बरबादियों की धूप में जलते बशर गए।
 
तेग़ों से वार करते वो मुझ पर तो ग़म न था
लफ़्जों के तीर चीरके मेरा जिगर गए।
 
कुरूक्षेत्र है ये ज़िंदगी, रिश्तों की जंग है
हम हौसलों के साथ हमेशा गुज़र गए।
 
तन मन से लिपटी रूह तो बीमार ही रही
जितने किये इलाज वो सब बेअसर गए।
 
छोटे से घर में ख़ुश थी मैं कितनी, बताऊँ क्या
अफसोस है के देवी वो दिन भी गुज़र गए।

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