चराग़े-दिल

राज़ दिल में छिपाए है वो किस कदर
सारी ख़ामोशियों की हदें पार कर।

यूँ तो जीते रहे रोज़ मर मर के हम
कर रहे हैं अभी एक गिनती मगर।

मुस्कराता था वो ऐसे अंदाज़ से
जैसे ज़ख़्मों से उसका भरा हो जिगर।

ज़िंदगी ने मुझे है बहुत जी लिया
सीख पाई न उससे कभी ये हुनर।

कितने रौशन सभी के है चेहरे यहाँ
मन में उनके बसा है अँधेरा मगर।

दीन ईमान दुनियाँ में जाने कहाँ
पाँव इक है इधर, दूसरा है उधर।

तीर शब्दों के ऐसे निकलते रहे
छेदते ही रहे जो हमारा जिगर।

ज़िंदगी को कभी भी न समझे थे हम
ख़्वाब थी, ख़्वाब ही में गई वो गुज़र।

डर की आहट न देवी कभी सुन सकी
सामने मौत आई तो देखा था डर

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