चराग़े-दिल

ख़्यालों ख़्वाब में ही महफिलें सजाता है।
और उसके बाद उदासी में डूब जाता है।

वो चाहता है के नज़्दीक रहूँ मैं उसके
क़रीब जाऊँ तो फिर फ़ासले बढ़ाता है।

कुछ ऐसे भाए हैं रस्तों के पचोख़म उसको
क़रीब जाके भी मंज़िल से लौट आता है।

किसी ज़ुबान के शब्दों से उसको नफ़रत है
किसी के धर्म पे उँगली भी वो उठाता है।

वो रूठ जाता है यूँ भी कभी कभी मुझसे
कभी कभी तो मिरे नाज़ भी उठाता है।

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