चराग़े-दिल

देखकर मौसमों के असर रो दिये
सब परिंदे थे बे-बालो-पर रो दिये।

बंद हमको मिले दर-दरीचे सभी
हमको कुछ भी न आया नज़र रो दिये।

काम आये न जब इस ज़माने के कुछ
देखकर हम तो अपने हुनर रो दिये।

कांच का जिस्म लेकर चले तो मगर
देखकर पत्थरों का नगर रो दिये।

हम भी महफ़िल में बैठे थे उम्मीद से
उसने डाली न हम पर नज़र रो दिये।

फ़ासलों ने हमें दूर सा कर दिया
अजनबी- सी हुई वो डगर रो दिये।

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