चराग़े-दिल

चराग़े-दिल  (रचनाकार - देवी नागरानी)

मेरे वतन की ख़ुशबू

बादे-सहर वतन की चँदन सी आ रही है
यादों के पालने में मुझको झुला रही है।

ये जान कर भी अरमाँ होते नहीं हैं पूरे
पलकों पे ख़्वाब ‘देवी’ फिर भी सजा रही है।

कोई कमी नहीं है हमको मिला है सब कुछ
दूरी मगर वतन से मुझको रुला रही है।

पत्थर का शहर है ये, पत्थर के आदमी भी
बस ख़ामशी ये रिश्ते, सब से निभा रही है।

शादाब मेरे दिल में इक याद है वतन की
तेरी भी याद उसमें, घुलमिल के आ रही है।

‘देवी’ महक है इसमें, मिट्टी की सौंधी सौंधी
मेरे वतन की ख़ुशबू, केसर लुटा रही है।

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