चराग़े-दिल

झूठ सच के बयान में रक्खा
बिक गया जो दुकान में रक्खा।

क्या निभाएगा प्यार वह जिसने
ख़ुदपरस्ती को ध्यान में रक्खा।

ढूँढते थे वजूद को अपने
भूले हम, किस मकान में रक्खा।

जिसने भी मस्लहत से काम लिया
उसने खुद को अमान में रक्खा।

जो भी जैसा है ठीक ही तो है
कुछ नहीं झूठी शान में रक्खा।

ज़िंदगी तो है बेवफ़ा ‘देवी’
इसने मुझको गुमान में रक्खा।

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