चराग़े-दिल

बिजलियाँ यूँ गिरीं उधर जैसे
उजड़ा अरमान का शजर जैसे।

दिन को लगता था रात ने लूटा
ऐन हैरत में था क़मर जैसे।

ख़वाब पलकों पे जो सजाए कल
आज टूटे, लगी नज़र जैसे।

तेरी यादों के साये थे शीतल
हो गई धूप बेअसर जैसे।

दिल्लगी दिल से किसने की है यूँ
जिंदगानी गई ठहर जैसे।

उस तरह मैं कभी न जी पाई
ज़िंदगी ने मुझे जिया जैसे।

हमको ज़िंदा न तू समझ ‘देवी’
दम निकलता है हर पहर जैसे।

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