चराग़े-दिल

ज़िंदगी रंग क्या दिखाती है
ये हँसाती है और रुलाती है।
 
यह तो फितरत है उसकी, क्या कहिये
शम्अ जलती है और जलाती है।
 
खुद से मिलने के वास्ते अक्सर
बेख़ुदी में वो डूब जाती है।
 
मुश्किलें जब भी सामने आईं
ज़िंदगी हौसला बढ़ाती है।
 
झूठ- सच की दुकां खुली जब से
वो ज़मीरों को आज़माती है
 
भीड़ सोचों की और गर्दिश की
क्या परेशानियाँ बढ़ाती है।
 
जो नचाते थे सबको उंगली पर
आज दुनिया उन्हें नचाती है।
 
रूठकर मुझसे ज़िंदगी ‘देवी’
कौन जाने कहाँ वो जाती है।

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