चराग़े-दिल

दीवार दर तो ठीक थे, बीमार दिल वहाँ
टूटे हुए उसूल थे, जिनका रहा गुमाँ।

दीवारो-दर को हो न हो अहसास भी अगर
दिल नाम का जो घर मेरा, यादें बसी वहाँ।

नश्तर चुभो के शब्द के, गहरे किये है जख़्म
जो दे शफ़ा-सुकून भी, मरहम वो है कहाँ?

झोंके से आके झाँकती खुशियाँ कभी कभी,
बसती नहीं है जाने क्यों बनके वो महरबाँ।

ख़ामोश तो जुबां मगर आँखें न चुप रही,
नादां है वो न समझे इशारों की जो जुबाँ।

इन गर्दिशों के दौर से देवी न बच सकें,
जब तक ज़मीँ पे हम है और ऊपर है आसमाँ।

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