चराग़े-दिल

बहता रहा जो दर्द का सैलाब था न कम
आँखें भी रो रही हैं, ये अशआर भी है नम।
 
जिस शाख पर खड़ा था वो, उसको ही काटता
नादां न जाने खुद पे ही करता था क्यों सितम।
 
रिश्तों के नाम जो भी लिखे रेगज़ार पर
कुछ लेके आँधियाँ गईं, कुछ तोड़ते हैं दम।
 
मुरझा गई बहार में, वो बन सकी न फूल
मासूम-सी कली पे ये कितना बड़ा सितम।
 
रोते हुए-से जश्न मनाते हैं लोग क्यों
चेहरे जो उनके देखे तो, असली लगे वो कम।

<< पीछे : ख़ता अब बनी है सज़ा का फ़साना आगे : बुझे दीप को जो जलाती रही है >>

लेखक की कृतियाँ

साहित्यिक आलेख
कहानी
अनूदित कहानी
पुस्तक समीक्षा
बात-चीत
ग़ज़ल
अनूदित कविता
पुस्तक चर्चा
बाल साहित्य कविता
विडियो
ऑडियो