चराग़े-दिल

कौन किसकी जानता है आजकल दुश्वारियाँ
जानते हैं लोग अपनी बेसरो सामानियाँ।

मैंने ग़ुरबत में हमेशा देखी है आसानियाँ
दौल्तो-सर्वत से लेकिन बढ़ गई दुशवारियाँ।

मुस्कराकर राहतों का लुत्फ़ लेते हैं सभी
रास्ते दुश्वार हों तो बढ़ती है बेताबियाँ।

ढेर से तोहफे हमें देती है हर पल ज़िंदगी
उनके बदले दिन ब दिन आती रहीं दुश्वारियाँ।

चाहती हूँ मैं मिटा दूं हर नये उस अक्स को
लौट कर रह रह के फिर आ जाती हैं परछाइयाँ।

साया भी मेरा मुझीसे है ख़फा ‘देवी’ बहुत
नागवार उसको भी हैं शायद मेरी नादानियाँ।

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