चराग़े-दिल

’चराग़े‍-दिल'  में मेरे अंतर मन की भावनाओं का एक ऐसा गुलदस्ता जो लोकार्पण के इस अवसर पर, कार्यक्रम में उपस्थित सभी वरिष्ट कवि गण व मुख्य महमानों को सादर  अर्पित करती हूँ।

'चराग़े‍-दिल मेरे प्रयास का पहला पड़ाव'  श्री 'महर्षि' गुंजार समिति' के आंगन में लोकार्पण उन्ही के मुबारक हाथों से पा रहा है यह मेरा सौभाग्य है। इस समिति के अध्यक्ष श्री आर.पी. शर्मा जिन्हें 'पिंगलाचार्य' की उपाधि से निवाज़ा गया है, छंद शास्त्र की विध्या और परिपूर्णता का एक अनोखा विश्वविध्यालय है लगता है एक चलती फिरती गज़ल है। उनके नक्शे पा पे चलते अपने अंतरमन की गहराइयों में खोकर मैंने जो कुछ वहाँ पाया, वही गज़ल गीत का पहला सुमन 'चराग़े‍-दिल' आपके सामने है।

आज आपके समक्ष खड़ी हो पाने का साहस लेकर यही कह सकती हूँ कि लेखन कला एक ऐसा मधुबन है जिसमें हम शब्द बीज बोते हैं, परिश्रम का खाध्य का जुगाड़ करते हैं और सोच से सींचते हैं, तब कहीं जाकर इसमें अनेकों रंग बिरंगे सुमन निखरते और महकते हैं।

कविता लिखना एक क्रिया है, एक अनुभूति है जो हृदय में पनपते हुए हर भाव के आधार पर टिकी होती है। एक सत्य यह भी है कि यह हर इन्सान की पूँजी है, शायद इसलिये कि हर बशर में एक कलाकार, एक चित्रकार, शिल्पकार एवं एक कवि छुपा हुआ होता है। किसी न किसी माध्यम द्वारा सभी अपनी भावनाएँ प्रकट करते हैं, पर स्वरूप सब का अलग अलग होता है। एक शिल्पकार पत्थरों को तराश कर एक स्वरूप बनाता है जो उसकी कल्पना को साकार करता है, चित्रकार तूलिका पर रंगों के माध्यम से अपने सपने साकार करता है और एक कवि की अपनी निशब्द सोच, शब्दों का आधार लेकर बोलने लगती है तो कविता बन जाती है, चाहे वह गीत स्वरूप हो या रुबाई या गज़ल।

जिंदगी एक सुंदर कविता है पर कविता जिंदगी नहीं, इस बात का समर्थन श्री आर. पी. शर्मा 'महर्षि' का यह शेर बखूबी बयान करता है:

जिंदगी को हम अगर कविता कहें
फिर उसे क्षणिका नहीं तो क्या कहें।

किसीने खूब कहा है 'कवि और शब्द का अटूट बंधन होता है। कवि के बिना शब्द तो हो सकते हैं, परंतु शब्द बिना कवि नहीं होता। एक हद तक यह सही है, पर दूसरी ओर 'कविता' केवल भाषा या शब्द का समूह नहीं। उन शब्दों का सहारा लेकर अपने अपने भावों को भाषा में व्यक्त करने की कला गीत-गज़ल है, उसी बात का ज़ामिन 'महर्षि' जी का एक और शेर है:

वो अल्फ़ाज़ मुंह बोले ढूंढती है
गज़ल ज़िंद: दिल काफिए ढूंढती है।

    बस शब्द बीज बोकर हम अपनी सोच को आकार देते हैं, कभी तो सुहाने सपने साकार कर लेते हैं, तो कहीं अपनी कड़वाहटों का ज़हर उगल देते हैं। सुनते हैं जब गमों के मौसम आते हैं तो बेहतरीन शेर बन जाते हैं। इसी सिलसिले में मुझे वरिष्ठ कवि श्री मा.ना. नरहरि जी का शेर याद आ रहा है:

सबने सौंपे अपने अपने ग़म, आंसू
मैं टूटा हूँ ऐसी ही सौग़ातों से।

बस शब्द बीज के अंकुर जब निकलते हैं तो सोच भी सैर को निकलती है, हर दिशा की रंगत साथ ले आती है। 'चराग़े‍-दिल' भी उन्हीं धड़कते अहसासों का गुलदस्ता है जहाँ कभी तो सोच का परिंदा पर लगाकर ऊँचाइयों को छू जाता है, तो कभी हृदय की गहराइयों में डूब जाता है। मेरी एक गज़ल का मक्ता इसी ओर इशारा कर रहा है:

सोच की शम्अ बुझ गई 'देवी'
दिल की दुनियां में डूब कर देखो।

यहाँ मैं माननीय श्री गणेश बिहारी तर्ज़ जी के दो शेर पेश करती हूँ जो इस सिलसिले को बखूबी दर्शाते हैं:

होने को देख यूं कि न होना दिखाई दे
इतनी न आंख खोल कि दुनियां दिखाई दे।

एक आसमान जिस्म के अंदर भी है
तुम बीच से हटों तो नज़ारा दिखाई दे।

आप सभी का तहे दिल से शुक्रिया अता करते हुए मैं अपनी एक गज़ल "मेरे वतन की खुशबू" पढ़ रही हूँ, जो मैंने डाँ अंजना सँधीर के "प्रवासिनी के बोल" को समर्पित की थी, इसी भावना के साथ कि प्रवासिनी होते हुए भी मैं वतन से दूर हूँ पर वतन मुझसे दूर नहीं। बस यही मेरे अहसास है, यही मेरी गज़ल भी।

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