चराग़े-दिल

कैसी हवा चली है मौसम बदल रहे हैं
सर सब्ज़ पेड़, जिनके साये में जल रहे हैं।

वादा किया था हमसे, हर मोड़ पर मिलेंगे
रुस्वाइयों के डर से अब रुख़ बदल रहे हैं।

चाहत, वफ़ा, मुहब्बत की हो रही तिजारत
रिश्ते तमाम आख़िर सिक्कों में ढल रहे हैं।

शादी की महफिलें हों या जन्म दिन किसीका
सब के खुशी से, दिल के अरमाँ निकल रहे हैं।

शहरों की भीड़ में हम तन्हा खड़े हैं ‘देवी’
बेचेहरा लोग सारे खुद को ही छल रहे हैं।

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