चराग़े-दिल

कितनी लाचार कितनी बिस्मिल मैं
कितनी बेबस हुई हूँ ऐ दिल मैं।

आशना तब मुझे मिला ऐ दिल
तेरी खुशियों में जब थी शामिल मैं।

दीप अरमाँ के ख़ुद बुझाए हैं
अपनी खुशियों की खुद ही कातिल मैं।

दिल हक़ीक़त से हो गया वाक़िफ़
हो गई खुद से कैसे ग़ाफ़िल मैं।

एक भी वादा कर सकूं पूरा
इतनी भी तो नहीं हूँ क़ाबिल मैं।

किस की करती शिकायतें ‘देवी’
सामने शीशा और मुकाबिल मैं।

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