चराग़े-दिल

नहीं उसने हरगिज रज़ा रब की पाई
न जिसने कभी हक की रोटी कमाई।

रहे खटखटाते जो दर हम दया के
दुआ बनके उजली किरण मिलने आई।

मिली है वहाँ उसको मंज़िल मुबारक
जहाँ जिसने हिम्मत की शम्अ जलाई।

खुदी को मिटाकर खुदा को है पाना
हमारी समझ में तो ये बात आई।

रहा जागता जो भी सोते में देवी
मुक़द्दर की देता नहीं वो दुहाई।

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